बीकानेर। मानव के क्रमिक विकास के साथ ही उसके वस्त्र-परिधान का भी विकास होना प्रारम्भ हो गया। समय के साथ उसके आचार-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान आदि में बदलाव आया उसी प्रकार उसकी वेशभूषा में भी बदलाव आया। वर्तमान में एक ओर राजस्थानी वेश भूषा और भाषा का प्रचलन कम होता दिख रहा है तो एक ओर बीकानेर के 18 साल के युवा लोकेश व्यास राजस्थान की अद्भूत संस्कृति बचाने में लगे है।
व्यास पिछले 8 वर्षो से साफा बांधने का कार्य कर रहे है, विभिन्न प्रकार के साफे बांधने की कला में माहिर व्यास ने अभी तक हजारों साफे निःशुल्क बांध दिये। उनका कहना है कि मेरा उद्देश्य केवल समाज में साफे की साख बचाएं रखना है।
व्यास ने अपनी इस कला का श्रेय अपने गुरूपिता गणेश लाल व्यास को दिया। किकाणी चैक स्थित व्यास परिवार पिछले 4 दशक से अधिक समय से समाज में निःशुल्क साफा बांधने का कार्य कर रहा है। व्यास ने बताया कि वह आदमीयों के सर पर तो साफा बांधते ही है साथ में गणगौर महोत्सव में ईसर व भाये के लिए, श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर लड्डू गोपाल के व विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार के साफे बांधते है।
व्यास ने बताया की राजस्थान कि संस्कृति को बचाने के लिए वह कार्यक्रमों में परखनली में साफे डाल कर भेंट करते है जो कि केवल 1 सेंटीमीटर से भी कम की परिधी पर बंधे होते है। जिसको वह संभाल कर रखे और जितनी बार उस पर नजर जायें उतनी बार वह अपनी संस्कृति की याद आती रहे। कवि भरत व्यास कहते है –
यह मुकुट हमें किस्मत युग के, वीरों की याद दिलाता है
तू संज्ञाहीन रंगों में,भी रक्त ऊफनसा जाता है
सब जग में धाक रहे, मानवता भी आवाक रहे
सबसे ऊंचा मस्तिष्क इसका सबसे ऊंची पहचान रहे
केसरिया पगडी बनी रहे, केसरिया पगडी बनी रहे
मनुष्य ने जहां शरीर को ढकने के लिए अपनी सुविधानुसार अलग-अलग वस्त्रों को पहनना प्रारम्भ किया, उनकी सजावट पर भी उन्होंने पूरा ध्यान दिया। इन वस्त्रों में सबसे सर्वोपरि स्थान सिरोधार्य का ही रहा। चाहे मुकुट हो या पाग-पगड़ी यह हमेशा से ही मनुष्य की आन-बान-शान की प्रतीक कहलाती थी।
ऊंट बतावे लम्बाई, साफो रौब दिखावें,
गहणा पेरोड़ी नारी ने देखण ने, देश – विदेशी आवें
मरूप्रदेश में पाग, पगड़ी, पेचा, साफा और फेंटा यह सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय है। बस सिर पर बांधने की शैली एवं उत्सवों के आधार पर इनका नामकरण किया गया। पाग, पगड़ी एवं पेचा मरूप्रदेश की मूल संस्कृति के शब्द है जबकि साफा एवं फेंटा पश्चिमी संस्कृति के शब्द है। पाग-पगड़ी को उश्णीश या शिरोवेष्टनः आदि शब्दों से भी पुकारा जाता है।
इन पाग-पगड़ी को सिर पर पेच देकर बांधने से पेचा नाम का नामकरण हुआ। ‘पाग’ या ‘पगड़ी‘ दोनो शब्द राजस्थान की संस्कृति में विशेष महत्व रखते है। राजस्थानी संस्कृति की आन-बान-शान की प्रतीक पाग यहां के लोक जीवन की विशिष्ट पहचान रही है। राजस्थान ही नहीं वरन् पूरे देश में भी अलग-अलग जाति एवं सम्प्रदाय में पाग या पगड़ी पहनने की परम्परा रही है।
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