फिल्म में महिला सशक्तिकरण सहित गांव में शौचालय की व्यवस्था होने जैसे अहम मुद्दों का चित्रण किया गया है। इसे पर्दे पर दर्शकों के सामने बिहार की मुसहर जनजाति की पृष्ठभूमि के माध्यम से पेश किया गया है। फिल्म में बुधनी नामक इसी जनजाति की एक युवती महिला सशक्तीकरण के साथ ही साथ देश में स्वच्छता के मुद्दे पर संदेश देती नजर आई हैं।
आईएएनएस संग हुई विशेष बातचीत में कामाख्या नारायण सिंह ने फिल्म से जुड़ी कुछ अहम पहलुओं पर बात की।
फिल्म को बनाने का ख्याल कैसे आया? इस सवाल के जवाब में कामाख्या ने बताया, मैं एक समाज कार्य का छात्र रहा हूं। डॉक्यूमेंट्री बनाने के चलते कॉलेज के दिनों में पहली बार जब मैंने एक कैमरा खरीदा था, तो मुसहरों की कम्युनिटी में ही मैंने इससे पहली तस्वीर ली थी। इंसान को हमेशा अपने आसपास की घटनाएं प्रभावित करती है। गांव में मैंने जाकर देखा कि शौचालय पर तमाम बातें होने के बावजूद लोग आज भी इस समस्या का सामना कर रहे हैं और इसी के चलते मैंने इस मुद्दे को एक पढ़ी-लिखी युवती (बुधनी) की नजर से दर्शकों के सामने पेश करना चाहा।
कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराहना प्राप्त कर चुकी इस फिल्म की शूटिंग के अनुभव और इसका यर्थाथ चित्रण की बात पर उन्होंने कहा, मैं एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर हूं। किसी मुद्दे और इससे संबंधित किरदारों का यथार्थ चित्रण करना हमारा काम है। मैं चाहता था कि चीजें काफी रियल हो। मैंने कई बार हिंदी फिल्मों में देखा है कि पांच-पांच साल से अकाल पड़ा हुआ है, लेकिन लोगों के कपड़े एक दम साफ दिखते हैं। मैं इसी बनावटी सोच को तोड़ना चाहता था। चूंकि मुसहरों को कभी किसी ने देखा नहीं है इसलिए मैं चाहता था कि जब आगे उनकी बात हो, तो लोगों के मन में उनकी एक छवि बन सके। इसके लिए सबसे पहले मुझे कास्टिंग पर काम करना पड़ा। मैं चाहता था कि कास्टिंग किसी ऐसे इंसान के द्वारा हो, जो मुसहरों की कद-काठी, बनावट, बोलचाल, रंग वगैरह को समझ सके।
किरदारों पर उन्होंने आगे कहा, मुख्य किरदारों के अलावा जितने भी सहायक किरदार फिल्म में शामिल हैं, वे गांव या उसके आसपास के इलाकों में रहने वाले हैं। कभी-कभार गांव के लोगों से ही कपड़े वगैरह मांगकर हमें किरदारों को उसी वेशभूषा में पेश कर शूटिंग करते थे। इसके बदले हम गांवववालों को नए कपड़े खरीद कर दे देते थे। सारी चीजें रियल लगे, इस पर फिल्म में काफी बारीकि से काम किया गया है।
चूंकि शौचालय व स्वच्छता पर इससे पहले भी फिल्में बन चुकी हैं, तो ऐसे में इस विषय पर दोबारा काम करने में उन्हें संशय नहीं लगा? इस पर कामाख्या ने बताया, नहीं, क्योंकि टॉयलेट महज एक विषय है। इससे संबंधित भी कई सारे मुद्दे हैं, जिससे लोग शौचालय में जाना पसंद नहीं करते हैं या हिचकिचाते हैं और इन्हीं सारी संबंधित बातों को मैं फिल्म के माध्यम से दिखाना चाहता था।
फिल्म पर आगे बात करते हुए उन्होंने यह भी कहा, फिल्म में हंसी है, ठिठोली है, गांव की शादी है, जो दर्शकों को अपने साथ जोड़कर रखने में सक्षम है। मैं चाहता था कि लोग इन सारी वास्तविक चीजों के माध्यम से अपनी जमीन से जुड़े क्योंकि आजकल की फिल्मों में दिखावे का चलन कुछ ज्यादा है, जबकि गांव का माहौल आज भी बेहद सादा है और इसी साधारण जीवनशैली से मैं लोगों का परिचय कराना चाहता था।
क्या आने वाले समय में भी वह इस तरह के सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनाते रहेंगे? इसके जवाब में फिल्मकार ने बताया, बिल्कुल, फिलहाल मैं जम्मू-कश्मीर पर एक स्क्रिप्ट लिख रहा हूं। मैं अपने आसपास की घटनाओं पर ही फिल्में बनाता रहूंगा। पिछले कुछ समय से जम्मू-कश्मीर चर्चा का एक विषय रहा है। यहां जिस तरह की चीजें हुई हैं बीते समय में मैं उन पर काम करना चाहता हूं और फिल्म के माध्यम से इन्हें पेश करना चाहता हूं। यह एक जियो-पॉलिटिकल स्क्रिप्ट होगी, जिस पर काम चल रहा है।
फिल्म भोर को एमएक्स प्लेयर पर रिलीज किया जा चुका है। ऐसे में अब दर्शक जिंदगी के ताने बाने, सामाजिक संघर्ष और सपनों की कहानी का जायका ले सकते हैं।
–आईएएनएस
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